केजरीवाल अन्ना हज़ारे के आंदोलन की उपज अवश्य हैं परंतु उनकी पहचान केजरीवाल होने से बनी है।
संवाददाता- (इस्माइल शेख)
मुंबई- बोरीवली पश्चिम के उत्तर भारतीय महासभा का कार्यक्रम रखा गया था। जहां अतिथि के तौर पर पहुंचे, केंद्र की भाजपा सरकार में केंद्रीय कानून मंत्री आर.पी.आई. गट के राष्टीय अध्यक्ष रामदास आठवले के हाथ में दिखा “केजरीवाल के जीत का असर”।
देश की राजधानी दिल्ली अर्धराज्य है जो यूपी गुज़रात महाराष्ट्र तमिलनाडु राजस्थान मध्यप्रदेश की तरह पूर्ण राज्य नहीं है। दिल्ली विधानसभा अवश्य है। उसमें विधायक भी हैं परंतु राज्यपाल के स्थान पर उपराज्यपाल होते हैं जिसे केंद्रसरकार का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है। वहां की सरकार अन्य पूर्ण राज्यों की तरह हरेक निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है।
अन्ना हजारे के दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में लोकपाल की मांग पर आमरण अनशन पर बैठे, लाखों की भीड़ मग़र अनुशासित नित्य ही जुड़ती थी। जिसमें न केवल दिल्ली के नागरिक होते थे बल्कि आंदोलन से प्रभावित होकर रैलियों में भाग लेने वाले देश के अन्य राज्यों से भी जुड़ते रहे थे।
केजरीवाल ने उस आंदोलन में व्यक्तिगत रूप से कैम्पेन किया था। वहीं से उनकी जुझारू नेता की छवि लोगों को ख़ासकर दिल्ली वालों को काफी भाने लगी। केजरीवाल ने पार्टी बनाने के पूर्व अपने देशभर में आंदोलन में सम्मिलित लोगों से विचार मंगवाए। बहुमत के आधार पर केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी गठित कर रजिस्टर्ड करा लिया।
दिल्ली चुनाव में बाहुमत तो नहीं मिली लेकिन लोकप्रिय जरूर हुए। दिल्ली चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम से अरविंद केजरीवाल अति उत्साह में भर गए। उन्होंने पंजाब में अपने प्रत्याशी खड़े किए मग़र वहां आशातीत सफ़लता नहीं मिली। दिल्ली में आंशिक सफ़लता से उन्हें भ्रम सा हो गया था कि देशभर में वोटर उन्हें विजय दिलाएंगे या नही।
आप को बताते चलें कि अरविंद केजरीवाल ने यहीं गलतियां शुरू कर दी। अन्नाहजारे का आंदोलन कॉंग्रेस सरकार के विरुद्ध रहा। अरविंद ने अपनी लड़ाई मोड़कर भाजपा के विरुद्ध कर लिया। उन्हें अहम हो गया कि वे पूरे देश में अब कहीं से भी जीत हासिल करेंगे और जनता उन्हें वोट देगी। इसीलिए वे भाजपा द्वारा नियुक्त स्टार प्रचारक मोदी के ख़िलाफ़ ताल ठोकने लगे। बड़बोलापन देखिए कि उन्होंने दावा किया कि मोदी गुज़रात या जहां से भी चुनाव लड़ेंगे, उनके विरुद्ध वे खड़े होकर चुनाव लड़ेंगे और हराएँगे भी। उन्होंने वाराणसी से पर्चा भरा। प्रचार में अपनी सारी ताक़त लगा दी लेकिन बुरी तरह से हार गए। यहीं वे राजनीति के अपरिपक्व खिलाड़ी होने के सबूत भी दिए। वाराणसी में प्रचार करने में सारा समय गंवा दिया। जिससे पंजाब में प्रचार के लिए वक़्त नहीं दे पाए।
इसी कडी मे आइये। अब फिर दिल्ली का रुख करते हैं। दिल्ली चुनाव में पहली बार आशातीत सफ़लता न मिलने से उनकी सरकार गिर गई। इसके बाद उन्हें थोड़ी राजनीति समझ मे आई। दूसरी बार वे दिल्ली पर फोकस करते रहे। दिल्ली वालों ने पहली बार अल्पमत की सरकार नहीं चलने के कारण आप को पूर्ण बाहुमत से जिताने का फ़ैसला कर लिया था। यही कारण है कि जनता ने दिल्ली में पूर्ण बाहुमत से सरकार बनाने का जनादेश दे दिया। इस आशा से कि अल्पमत के कारण दिल्ली के लिए वे कुछ कर नही सके तो पूर्ण बाहुमत देकर देखा जाय। सरकार बनने के तीन साल दिल्ली में आप सरकार ने कोई खास उपलब्धि नहीं हासिल किया।
न्यायधर्मसभा ने अपने 111 प्रस्ताव केजरीवाल को दिए थे। पहले तो उन्होंने उसपर ध्यान नहीं दिया परंतु अंतिम दो वर्षों में उन्होंने न्यायधर्मसभा के प्रस्ताव चार जनाधिकार में शिक्षा, बिजली पानी राशन और स्वास्थ्य क्षेत्र पर ध्यान देकर जमता के लिए मॉडल के रूप में उभरे। जनता को और क्या चाहिए? समवैधानिक रूप से भी निःशुल्क शिक्षा, बिजली पानी और स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी सरकारों की होती है। अरविंद ने चार मूलभूत अधिकार दे कर जनता की पीड़ा पर मरहम लगाया, जिसका सुखद परिणाम उन्हें और उनकी पार्टी को बहुमत के रूप में मिला। केंद्र सरकार हो या फिर राज्यसरकारें जनता को उसके चार जनाधिकार देकर अपनी जीत सुनिश्चित कर सकती हैं। अरविंद केजरीवाल ने मॉडल बना दिया है। देखना है देश की अन्य सरकारें जनता को चार जनाधिकार देकर अपने दायित्व निभाती हैं या नहीं?
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