बस,… वन वासियों का वन.. बख्श दो!
सुरेंद्र राजभर (Exclusive Report)
आदिवासियों के बीच मानव विकास सूचकांक के बारे में नए अध्ययन से ज्ञात होता है कि आदिवासी विकास सूचकांक शिक्षा, स्वास्थ्य, मृत्यु दर आदि में निचली सीढ़ी पर पहले भी था और आज भी है! सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसे कानून पर अमल में आदिवासी इलाकों की उपेक्षा हो रही है! आदिवासी और अन्य वन वासियों के वन अधिकार 2006 पर अमल आज निर्णायक दौर में है! विगत 2006 में संसद की शीतकालीन सत्र में यह अधिनियम पारित हुआ था, पर आज तक इसके नियमों की अधिसूचना जारी होने का इंतजार किया जा रहा है! वन अधिकार अधिनियम बनाने और पारित कराने का एक लंबा दौर चला ! फिर भी विडंबना है कि इस दौर में भी वन-अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ने और वन क्षेत्रों में अशांति कम होने के बजाय द्वंद्व, विस्थापन, प्रदूषण, पर्यावरण से छेड़छाड़ के मामलों में दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है! लेकिन आज भी आदिवासी इलाकों में अशांति, अनिश्चितता और उद्वेलन देखी और महसूस की जा रही है! उग्रवाद और हिंसा प्रभावित क्षेत्र देखें तो जंगल और आदिवासी आज भी सबसे ज्यादा प्रभावित है! हांलाकि आज के दौर में प्रगति के विकास के विस्तारीकरण में नए उद्योगों, पूंजी निवेश, विकास परियोजनाओं से आदिवासियों और जंगलों (पर्यावरण) का विकास होगा या विनाश यह विवाद और विरोध का मुद्दा बना हुआ है पर्यावरण आंकड़ों के रूप में देखा जाए तो………..
महाराष्ट्र में भौगोलिक क्षेत्रानुसार वन क्षेत्र…
.लातूर ——————0.17%
.सोलापुर —————0.32%
.जालना —————-0.49%
.उस्मानाबाद ———–0.63%
.परभणी —————-0.77%
जबकि इस मामले की जद्दोजहद के बाद आखिर संयुक्त राष्ट्र ने विगत वर्ष 2007 सितंबर में आदिवासियों के अधिकारों के पक्ष में घोषणा पत्र स्वीकार किया गया था और भारत ने भी इसके पक्ष में मतदान किया था ! इस घोषणा पत्र के संदर्भ में आज भी केंद्र सरकार और राज्य सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है की वे एक मौजूद समय और सही अवसर का इस्तेमाल करते हुए आदिवासी और बाकी समाज के बीच एक नया रिश्ता बनाने की कोशिस करें! जो वनों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है! हालांकि अधिनियम में आदिवासियों और वन वासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर व्यक्तिगत सामूहिक अधिकार वन में प्रवेश और अधिकार, विस्थापन के विरुद्ध पुनर्वास और भूमि अधिकार आदि प्रावधान है! लेकिन यह सकारात्मक पहल सशक्त कार्रवाई के बिना आज भी शुन्य है! अब ऐसे में अधिनियम को सकारात्मकता के साथ जब संसद ने पारित किया है, तो इस पर अमल भी सकारात्मक होनी चाहिए! लेकिन वनों को लेकर एक जंग सी छिड़ गई है! एक तरफ आदिवासी समाज है, तो दूसरी तरफ पूंजी- मुनाफा और औद्योगिक कंपनियां! हालां कि आदिवासियों और वन क्षेत्रों पर वर्तमान सरकार की नीतियां भी आंतरिक कलह से आज भी भरी है और हम सभी जानते हैं कि यहां वन निवासियों की भूमि, आवास, चारागाह, खेती, लघु उपज, संकलन आदि के अधिकार लगातार विवादास्पद है! अधिनियम अमल में आए या ना आए, पर चुनावी माहोल में राज्यसरकारों और राजनीतिक दलों ने अधिनियम का इस्तेमाल भी जमकर शुरू कर दिया है! गत दौर में गुजरात सरकार ने अधिनियम का नाम लेकर जंगल में जमीन के पट्टे देने का सार्वजनिक कार्य किया है तो, सर्वोच्च न्यायालय ने भी जंगल मामलों पर एक जारी याचिका के दौरान पट्टा वितरण पर स्थगन लगाकर कार्रवाई के नाम पर खाना-पूर्ति कर दी! जो आज भी कागजी घोड़ों पर सवार है! औपनिवेशीकरण और जमीन संसाधन व समाज से अलगाव के कारण यदि आदिवासी समाज विकास से वंचित है, तो वन अधिकारों और अधिनियम के अमल में अबभी कोई देर नहीं होनी चाहिए!
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