- राष्ट्रपति हस्ताक्षर के बिना कानून निर्मित नही होता।
- राष्ट्रपति ही करते है संसद सत्र का उद्घाटन और संसद को संबोधन।
- आखिर आदिवासी महिला राष्ट्रपति की उपेक्षा कर बीजेपी देश की जनता को क्या बताना चाहती है ?
- विपक्ष के 19 दलों ने बहिष्कार कर लिखी चिट्ठी।
- दलित राजनीति करने और आंबेडकर का नाम लेने का अधिकार खो चुकी हैं मायावती।
- सब कुछ गंवा बैठे उद्धव ठाकरे आदिवासी राष्ट्रपति के सम्मान में अड़े और बहिष्कार में डटे।
- मोदी कभी नेहरू नहीं बन सकते दोनों की सोच, प्रवृति में जमीन आसमान का अंतर।
- नेहरू के कैबिनेट में विरोधी नेता भी मंत्री हुआ करते थे।
- विपक्ष को ही खत्म करने पर तुले हैं पीएम मोदी।
- बीजेपी का केंद्रीय सत्ता से बेदखल होने का संकेत है सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताना।
सुरेंद्र राजभर
मुंबई- राष्ट्रपति जिन्हें महामहिम कहा जाता है। देश का प्रथम नागरिक होता है और संसद का कस्तोदियम। राष्ट्रपति के बिना किसी भी संसद की कल्पना नहीं की जा सकती। संविधान के अनुच्छेद 79 में राष्ट्रपति के संदर्भ में स्पष्ट लिखा गया है, कि राष्ट्रपति सरकार के ऊपर वह पद है। जिसके हस्ताक्षर बिना कानून निर्मित नहीं होता है। संसद सत्र का उद्घाटन और संसद को संबोधन राष्ट्रपति ही करते हैं जिस पर संसद में धन्यवाद प्रस्ताव लाया जाता है। राष्ट्रपति के अधिकार इतने अधिक हैं कि वही सेना के तीनों अंगों के मुखिया होने से सर्वोच्च सेनापति कहा जाता है। राष्ट्रपति यदि चाहें तो संसद को भंग कर राष्ट्रपति शासन और मार्शल लॉ लागू कर दे। तब संसद का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। (बहिष्कार की चिट्ठी)
सेंट्रल विष्ठा के निर्माण की बात यूपीए सरकार के समय आया था और तब लोकसभा स्पीकर ने उसे निर्माण की अनुमति भी दी थी। अपरिहार्य कारणों से निर्माण नहीं हुआ। कोविड काल में जब देश त्राहिमाम कर रहा था तब निर्माण का शिलान्यास हुआ और अब 12 हजार करोड़ जनता के पैसे से निर्माण पूरा हुआ। आत्ममुग्ध मोदी ने शिलान्यास किया तब भी संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति को बुलाया नहीं गया। आज जब उद्घाटन का समय आया तो भी उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। क्या यह उस वनवासी आदिवासी बुजुर्ग महिला का अपमान नहीं है।
लेकिन मोदी की आत्ममुग्धता ने नैतिकता भी भुला दी है। देश को याद है राष्ट्रपति के रूप में चुनाव के समय आदिवासी के चुनाव के विरुद्ध विपक्षियों पर मिथ्यारोप लगाए थे बीजेपी ने जबकि उन्हें मिले वोट बताते हैं कि वे बीजेपी के वोटों से विजयि नहीं हुईं। विपक्षियों के भी वोट मिले। आज उन्हीं आदिवासी महिला राष्ट्रपति की उपेक्षा कर बीजेपी क्या बताना चाह रही है? यही न कि सत्ता प्राप्ति के लिए आदिवासी दलित और हिंदू बताए जाते हैं। वैसे संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति करतीं या फिर लोकसभा स्पीकर, क्योंकि पीएम मोदी भले ही सदन के नेता हो लेकिन संसद की कमान स्पीकर के हाथों होती है।
बहिष्कार की चिट्ठी..
विपक्ष के 19 दलों ने वहिष्कार की चिट्ठी लिखी है। उन्हें यह राष्ट्रपति का अपमान लगता है। दूसरा कारण 28 मई सावरकर का जन्मदिन है जो कट्टर हिंदूवादी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे के सहयोगी थे। उस पत्र में केवल तीन विपक्षियों ने हस्ताक्षर नहीं किए। जगमोहन रेड्डी जिनके खिलाफ खनन मामले में ईडी, सीबीआई का भय सता रहा है। दूसरे हैं नवीन पटनायक जो अंतिम व्यक्ति की बात कहते रहे है। बंद कमरे में कहते थे कि वे विपक्षियों के साथ हैं लेकिन जेल जाने, संपत्ति जब्त होने का डर है उन्हें। तीसरी मायावती जिनके पास अकूत संपत्ति है। ईडी के भय से वे महिला आदिवासी, आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र को पद दलित होते नहीं देख सकती हैं। ऐसे में मायावती दलित राजनीति करने और आंबेडकर का नाम लेने का अधिकार खो चुकी हैं। नतीजा उनके पास अब एक भी एमएलए नहीं है। अकाली दल ने बीजेपी से हाथ मिलाया आज खत्म है। तीसरे हैं केसीआर जिन्हें सीबीआई और ईडी का खौफ है। फिल्म शोले का एक डायलॉग है जो डर गया वह मर गया। राहुल गांधी अपनी सदस्यता खत्म होने, मां, बहन और बहनोई के विरुद्ध खौफ पैदा करने के बावजूद डटे हैं। शरद पवार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और सब कुछ गंवा बैठे उद्धव ठाकरे आदिवासी राष्ट्रपति के सम्मान में अड़े और वहिष्कार को डटे हैं।
क्या है सेंगोल ?
आज कल जिस सेंगोल की बात कहते हुए अमित शाह उसे इलाहाबाद नेहरू म्यूजियम से दिल्ली और फिर नए संसद भवन में स्थापित करने, विपक्षियों को राजनीति नहीं करने की नसीहत देते हुए सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताते हैं। वह वास्तव में राजदंड है जिसे राज्य के पुरोहित धारण करते थे राजा या सम्राट नहीं। तमिल भाषा का सेंगोल जिसका अर्थ होता है राजदंड न कि सत्ता हस्तांतरण। जब देश आजाद होने वाला था। तब उसी समय राज गोपालाचार्य तमिलनाडु तब मद्रास के एक मठ में देखा था। उसी की प्रतिमूर्ति सोने की बनवाकर अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंट बेटन के हाथों में दिया फिर उसे नेहरू के हाथों में सौप दिया जिसे उनकी व्यक्तिगत वस्तु मानकर इलाहाबाद नेहरू संग्रहालय में रखा गया था।
राजदंड वास्तव में पुरोहित का दंड रहा है जिससे वह राजा पर अंकुश लगाना, फटकारने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। आज लोकतंत्र में लोकसभा के स्पीकर राजपुरोहित की भूमिका में हैं तो राजदंड उनकी टेबल पर स्थापित की जानी चाहिए ताकि सरकार को कंट्रोल में रख सके।
बहरहाल पीएम मोदी उद्घाटन खुद करने पर अड़े हैं। वे नेहरू बनना नहीं दिखाना चाहते हैं तो सच तो यह है कि मोदी कभी भी नेहरू नहीं बन सकते। दोनो की सोच, प्रवृत्ति में जमीन आसमान का अंतर है। नेहरू विपक्षी दलों का सम्मान करते थे इतिहास गवाह है, कि उनके कैबिनेट में विरोधी नेता भी मंत्री हुआ करते थे जबकि मोदी विपक्ष ही खत्म करने पर तुले है।
बहरहाल देश की जनता एक आदिवासी बुजुर्ग महिला राष्ट्रपति का अपमान किए जाते देख सुन रही है वह चुनावों में अपना निर्णय भी सुना रही सेंगोल का संसद में स्थापित किया जाना और खुद अमित शाह द्वारा सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताना कहीं बीजेपी का केंद्रीय सत्ता से बेदखल होने का संकेत तो नहीं?
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