डिबेट में विपक्षी नेताओं और उसके संबंधित लोगों के साथ खुद बहस करता है गोदी मीडिया

  • चैनल के एंकर पत्रकार हैं या दरबारी गुलाम: आम नागरिक
  • क्या हो गया है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को?
  • लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतीक नही बन सकता सेंगोल।
  • अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण नेहरू के हाथों नहीं संविधान निर्माता कमेटी को किया था।
  • क्या अशोक स्तंभ हटाकर चोल वंशीय राजा के प्रतीक को सरकार राष्ट्र का प्रतीक बनाएगी?

सुरेंद्र राजभर
मुंबई-
आज मेन स्ट्रीम की मीडिया बीजेपी सरकार विशेषकर पीएम मोदी के यशोगान को अपना कर्म और धर्म मानती है। किसी भी डिबेट में विपक्षी नेताओं और उसके संबंधित लोगों के साथ खुद बहस करने लगता है जैसे वह एंकर खुद ही सरकार हो। जिसे देख-सुनकर आम नागरिक आश्चर्य करता है और सोचता है, कि ये चैनल के एंकर पत्रकार हैं या दरबारी गुलाम? इतनी चाटुकारिता क्यों? क्या हो गया है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया ..

कभी मीडिया के पत्रकारों से नेता, अधिकारी भयभीत रहा करते थे। बला मानते थे। सोचते थे पता नहीं जनता की कौन सी समस्या पर सवाल पूछकर उलझा दें। पहले पत्रकार जनता के हित में सत्ता और प्रशासन से सवाल पूछकर असहज कर देते थे। शासक को उसके दायित्व का ध्यान दिलाकर समस्या के समाधान कब तक सरकार करेगी ? अवधि पूछते थे। तब पत्रकार त्यागी और खोजी हुआ करते थे। गलत को गलत कहने की हिम्मत थी उनमें। अनगिनत पत्रकारों की हत्या तक हुईं लेकिन पत्रकार ने कभी पत्रकारिता के निष्पक्षता पर सवाल खड़े होने नहीं दिया।

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आज भी तमाम ऐसे साधन हीन पत्रकार हैं जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बचाए रखने में अपना सर्वस्व खो दिया। लेकिन शासक की चाटुकारिता नहीं की। वे अलख जगाए हुए हैं जनता के आर्थिक सहयोग से और विदेश जब भी जाते हैं वहां रहने वाले देशवासी उन्हें आंखो की पलकों पर बिठा लेते हैं। उन स्वाभिमानी पत्रकारों ने अपने मालिक के सामने कभी घुटने नहीं टेके। आज भी मीडिया की स्वतंत्रता की अलख जगाए हुए हैं। कोई भी पत्रकार सम्मान नहीं बेच सकता। वे पत्रकार नहीं चाटुकार हैं जो अपनी जुबां को सुविधा की बेड़ियां पहना दी हैं।

मेन स्ट्रीम में आज कोई भी स्वाभिमानी पत्रकार रह ही नहीं सकता। जो सुविधा के लिए अपना जमीर बेच चुके हैं। वे पत्रकार नहीं भांट हैं। जो राजदरबार में राजा की झूठी और खोखली प्रशंसा करते रहते थे। आज मेन स्ट्रीम के पत्रकार अपना स्वाभिमान खो दिया है। जमीर बिक चुका है।
ऐसी ही एक चैनल की मशहूर एंकर हैं, ‘अंजना ओम कश्यप’ जिन्होंने विपक्षी दलों द्वारा नए संसद के उद्घाटन संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति से नहीं कराने और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं करने को अलोकतांत्रिक मानते हुए समारोह के बहिष्कार का निर्णय लिया है।

मीडिया,
प्रतिक्रियात्मक तस्वीर

उधर अंजना ने एक सर्वे जारी कर पूछा था, कि विरोधी दलों के बहिष्कार से आप सहमत हैं अथवा असहमत? हां और ना में उत्तर पूछा था जिसमें दो लाख देशवासियों ने हिस्सा लिया जिसमें 66 % लोग विपक्ष के साथ हैं। अब क्या करेंगी ? सर्वे डिलीट कर भगोड़ी बनेंगी या डटी रहेंगी। वास्तव में इस सर्वे का परिणाम इस सेंगोल के स्पीकर के पास लगाने और नहीं लगाने पर भी जनता की राय है और जनता ने उसे खारिज कर दिया है। सेंगोल लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्र का प्रतीक नहीं बन सकता। अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तांतरण नेहरू के हाथों नहीं बल्कि संविधान निर्माता कमेटी को किया था।

सफेद झूठ..

यह सफेद झूठ फैलाया गया, कि दंड अंतिम ब्रिटिश गवर्नर ने नेहरू को दिया। दिया भी तो वह नेहरू की व्यक्तिगत संपत्ति थी इसलिए उसे इलाहाबाद के नेहरू संग्रहालय में रखा गया। संविधान समिति में देश भर के विद्वान थे। राष्ट्र का प्रतीक क्या हो इसपर अठारह दिनों विचार विमर्श हुआ और अंत में पूरी दुनिया में पहुंच चुके अशोक स्तंभ को ही प्रतीक मानकर लागू किया गया। अब क्या देश भर से अशोक स्तंभ हटाकर चोल वंशीय राजा के प्रतीक को सरकार राष्ट्र का प्रतीक बनाएगी? सर्वे में 66 % देशवासियों ने मना कर दिया है। अब अमित शाह और नरेंद्र मोदी व्यक्तिगत एजेंडा चला रहे हैं, जिसके पक्ष में कोई भी देशवासी नहीं होगा।

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