- पुलिस को स्वतंत्र रखा जाना चाहिए।
- भारत में अंग्रेजों ने बनाया था दमन कारी पुलिस अधिनियम।
- अंग्रेजों ने पुलिस एक्ट सन 1861 में लागू किया।
- जनता का हितैषी मित्र बनाने की बात पर असफल रही पुलिस।
- सरकारी नियंत्रण के कारण पुलिस में भी भ्रष्टाचार।
- रेवेन्यू विभाग के बाद दूसरे नंबर का भ्रष्ट कहा जाने लगा पुलिस विभाग।
- अधिकांश पुलिस के जवान और अधिकारी आज भी बेहद ईमानदार और कर्मठ।
- ईमानदार पुलिस जनता की वास्तविक रक्षक।
- पुलिस की पीड़ा को कभी किसी सरकार ने नही समझा।
सुरेंद्र राजभर
मुंबई- औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों को एक ऐसी फोर्स चाहिए थी, कि जो अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आंदोलनों के दमन के लिए हमेशा तैयार रहे। जहां आजादी की जंग देशव्यापी होने के कारण अंग्रेजी सत्ता को डर लगने लगा था। ऐसे में अहिंसक आंदोलनों के साथ सशस्त्र आंदोलन भी होने लगे थे। जो पहले स्थानीय स्तर पर होने लगे थे। उसे दमन करने के लिए अंग्रेजों ने पुलिस एक्ट सन 1861 में लागू किया। तब कानून के मुताबिक पुलिस सत्ता की वफादार हुआ करती थी।
स्वतंत्र पुलिस..
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, कि आजादी मिलने के बाद भी उस औपनिवेशिक पुलिस एक्ट में परिवर्तन या सुधार नहीं किया गया। क्योंकि गोरे अंग्रेजों के हमारे देश से जाने के बाद देश की अंग्रेजी मानसिकता के काले अंग्रेजों के हाथ में सत्ता आई जो लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के कारण तन से भारतीय अवश्य थे। लेकिन मन से अंग्रेज जो खुद को एलिट वर्ग मानता और समझता रहा। उस समय भारत की जनता उनकी प्रजा थी और प्रजा पर शासन करना उनका जन्म सिद्ध अधिकार मान लिया गया था। देशी शासकों को और जनता को भी गुलाम बनाए रखने के लिए फोर्स चाहिए थी।
यद्यपि पुलिस रिफार्म की बातें जब तब होती रहीं, लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव कहें या सत्ता मोह। किसी भी सरकार ने औपनिवेशिक पुलिस एक्ट में संशोधन करने का कष्ट नहीं किया। वहीं सरकारों ने उनके लिए पुलिस सहित अन्य जांच एजेंसियां आईटी, ईडी और सीबीआई जैसी शक्तिशाली हथियार विपक्षियों पर अंकुश रखने के साथ-साथ जनता को सरकार के खिलाफ बोलने से रोकने के लिए ज़रूरी समझा।
आजादी के बाद जिस वर्दी को जनता का मित्र बनाया जाना चाहिए था सरकारों ने सोचा ही नहीं। आज भी सरकारें अपना दबदबा बनाए रखने के लिए पुलिस को जनता का मित्र बनने ही नहीं दिया जा रहा है। समय-समय पर पुलिस के बड़े अधिकारियों ने पुलिस को जनता का हितैषी मित्र बनाने की बातें कहीं लेकिन असफल रहे है।
पुलिस अपने आप को आज तक शासन का तंत्र ही समझती रही है। सरकारी नियंत्रण के कारण पुलिस में भी भ्रष्टाचार आ गया। जनता को डरा-धमका कर विवाद की हालत में पुलिस अधिकतर दोनों पक्षों से धन वसूली करती रही। इसी कारण पुलिस विभाग को रेवेन्यू विभाग के बाद, दूसरे नंबर का भ्रष्ट कहा जाने लगा। इसके साथ ही खाकी का दुरुपयोग किया जाने लगा।
ऐसा नहीं है कि सभी पुलिस वाले भ्रष्ट हैं। अधिकांश पुलिस के जवान और अधिकारी आज भी बेहद ईमानदार हैं। उनकी प्रशंसा भी की जाती है। ईमानदार पुलिस जनता की वास्तविक रक्षक है। यदि पुलिस विभाग आज स्वतंत्र हो जाए और सरकार का नियंत्रण खत्म कर दिया जाए तो खाकी पर पड़े दाग धुल जाएंगे। बहुत बार ऐसा देखा जाता है, कि पुलिस अपनी जान पर खेलकर अपराधी को पकड़ कर थाने में लाती है। ऊपर से बड़े अधिकारी, नेताओं, मंत्रियों का फोन आ जाता है, कि वह अपराधी नेता का खासमखास व्यक्ति है। उसे तुरंत छोड़ दो वर्ना तुम्हें ऐसी जगह फेंक दिया जाएगा, जहां तुम एक भी दिन रहना नहीं चाहोगे।
एक पुलिस इंस्पेक्टर थे जो अब रिटायर हो चुके हैं। जीवित हैं भी या नहीं निश्चित नहीं है। वे किसी भी पुलिस थाने में अपनी ईमानदारी और दबंगई से अपराधियों के मन में दहशत पैदा करते थे। उन्होंने कभी अपना सूटकेस और होल्डाल ही नहीं खोला। नाले में गिरने पर जीवन बचाने, दुर्घटना होने पर तुरंत अस्पताल पहुंचाने, जनता में घुलने-मिलने वाले तमाम पुलिस के लोग हैं जो जनता के दिलों पर राज करते हैं। हर एक आपदा में पुलिस की भूमिका निःसंदेह मानवता से ओत प्रोत लगती है।
भ्रष्ट दो चार प्रतिशत ही हैं शेष बेहद ईमानदार और कर्मठ हैं।
सच कहा जाए तो पुलिस की पीड़ा को कभी किसी सरकार ने समझा ही नहीं। कोविद-19 काल को याद करें। चौबीसों घंटे ड्यूटी दी थी पुलिस के जवानों ने। कई पुलिस वाले तो मानव धर्म निभाते हुए अपने प्राण दे दिए हैं।
पुलिस एक्ट में पूरा परिवर्तन होने पर ही पुलिस जनता की मित्र हो जाएगी। सच तो यह है कि पुलिस को स्वतंत्र रखा जाए।
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